प्रेम क्या है?

आज युवा वैलेँटाइन डे मना रहे हैँ। सबके लिये प्रेम का त्योहार है। परंन्तु मै देख रहा हूँ यहाँ कोई प्रेम करना जानता ही नहीँ। आज सभी मिलन के लिये एक दूसरे कि तरफ दौड़े चले जा रहे हैँ । खूबसूरती की चाहत मे बदसूरती को अपना रहे हैँ। क्या पता भी है प्रेम क्या है? प्रेयसी से मिलन प्रेम नही है । तुम तो प्रेयसी से मिलने की चाहत मे दूर जा रहे हो। देखो तो पिछले वर्ष कई प्रेम करने वालोँ का प्रेम, इस वर्ष नये प्रेम सम्बन्ध बना रहा है। ये कैसा मिलन किया कि दूर हो गये? तुम्हारा प्रेम केवल भौतिक था तभी तो समाप्त हो गया, आज उसके सामने पड़ने मात्र से द्वेश छलक उठता है क्यो? कल वही तो सबसे प्रीय था फिर ये क्या हुआ कि अब देखना तक पसन्द नहीँ? फिर तुम कहोगे उसने विश्वासघात किया था। परन्तु विश्वासघात तो उसने किया तुम अपने प्रेम को क्योँ नफरत की आग मे झोँक रहे हो। तुम्हे प्रेम है तुम प्रेम करो उसे नहीँ है, वो द्वेश करेगी। तुम क्योँ अपने अन्दर का प्रेम नफरत की आग मे झोँक कर प्रेम नष्ट कर रहे हो, पर तुम्हारा प्रेम फिर भी नष्ट नही हुआ ? प्रेयसी के सामने पड़ते ही उसका प्रेम अन्दर उमड़ उठा परंन्तु विश्वासघात की आग तुम्हारे अन्दर ही थी जिसने उस उमड़े हुए प्रेम को पल भर मेँ जला डाला। जिस प्रकार गरम तवे पर ठण्डी पानी की बूद पड़ते ही उड़ जाती है ठीक उसी प्रकार तुम्हारा प्रेम भी विश्वासघात के ताप मे उड़ गया। तुम्हे तो ताप ठंण्डा करने के लिये प्रेम बढ़ाना पड़ेगा। जिस प्रकार गरम तवे पर ढेर सारा ठंण्डा पानी डालने पर तवे का ताप खतम हो जाता है उसी प्रकार अपने अन्दर की विश्वासघात से पनपे नफरत के ताप को शान्त करने के लिये प्रेम को उसपर भरपूर मात्रा मे उड़ेल दीजिये। जब आप मे अनन्त प्रेम भरा होगा तो कौन आप की ओर नही आना चाहेगा। परंन्तु प्रेम क्या है? ये समझना कठिन नहीँ है। ध्यान देने वाली बात ये है कि आप का प्रेम भौतिक तो नहीँ, यदि भौतिक हुआ तो तुम भटकते रहोगे प्रेम कभी नही मिलेगा। भौतिक प्रेम बार बार होता है बार बार नष्ट होता है। परंन्तु सात्विक प्रेम एक बार होता है और कभी नष्ट नहीँ होता। आप कहोगे की सात्विक प्रेम कैसे करेँ? तो सर्वप्रथम अपनी माता के प्रेम पर विचार कर लेँ, यदि एक माता का पुत्र बदसूरत है तो भी वह अपने पुत्र से उतना ही प्रेम करेगी जितना की दूसरी माँ अपने खूबसूरत पुत्र को करती है, ऐसा क्योँ? क्योँ की माँ अपने पुत्र को अपने भीतर से जन्म देती है, तुम्हे भी अपने भीतर जाना होगा, भीतर कहाँ? अपनी आत्मा को पहचानो वही तो है जो तुम्हे सात्विक प्रेम प्रदान करेगी बस उसी से प्रेम करो, वही प्रेम करने योग्य है वही आत्मा तो सब मेँ है, फिर कुछ बचा कहाँ सबकुछ तो प्रेममय हो गया। क्योकि सब मेँ एक ही तो बसता है आत्मा, उससे अलग कुछ है ही नहीँ। भौतिकता तो प्रेम को रूप देने के लिये मिली है इसे कुरुप मत करो।
प्रत्येक जीव प्रेम के योग्य है परंतु जीव की भौतिकता नहीँ । अपने प्रेमी एवं प्रेयसी मेँ जब सृष्टि की सम्पूर्णता को देखोगे तब प्रेम करने मेँ आनन्द आयेगा तब संदेह नही होगा, पाने एवं खोने के लिये कुछ नहीँ होगा तुम्हारा प्रेम सात्विक हो जायेगा तब तुम प्रेम ही आदान प्रदान करोगे भौतिकता की कोई जगह ना होगी। ऐसे प्रेम मेँ वियोग भी आनन्द देगा और मिलन तो ऐसा होगा कि सम्पूर्ण संसार मेँ दिखने वाला प्रेम अपने प्रेमी एवं प्रेयसी मेँ उतर जायेगा। ऐसे प्रेम मेँ परंम आनन्द की प्राप्ति होगी। क्योँ कि तुम्हारा प्रेम आत्मा से होगा, तुम अपने प्रेमी मेँ सम्पूर्ण आत्मा का अनुभव करलोगे वह मिलन तुम्हे एक बना देगा। भगवान कृष्ण का प्रेम ऐसा ही तो था राधा कृष्ण अलग होकर भी एक हैँ कारण यही है की प्रेम आत्मा से आत्मा का है। भगवान कृष्ण तो भग्वत गीता मे स्वयं कहते है कि सृष्टि मुझमे मोतियोँ के समान गुथी हुई है मुझसे अलग कुछ नहीँ सब कुछ मैँ हूँ अर्थात गोपियाँ सम्पूर्ण सृष्टि की आत्मा के दर्शन भगवान कृष्ण मेँ करती है अपने प्रेम को सम्पूर्ण बनाती है, सम्पूर्ण सृष्टि को अपने प्रेमी मे देखती है। तभी तो वियोग मेँ भी आनन्द लेती हैँ और मिलन मेँ पूरे संसार का प्रेम श्री कृष्ण पर उड़ेल देती हैँ। बस यही तो सात्विक प्रेम है कि अपने
प्रेमी एवं प्रेयसी मेँ सम्पूर्ण सृष्टि की आत्मा को देखना और उसपर सबका प्रेम उड़ेल देना यही आत्मा से आत्मा का प्रेम एवं मिलन है, और यही सत्य प्रेम है ।

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